बुधवार, 2 नवंबर 2011

"एक ईश्वर को मानने मे कैसा झगडा"

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"एक ईश्वर को मानने मे कैसा झगडा"

इस क्रम में मेरा एक मत अपना इस प्रकार है__कि हम जब एक ईश्वर के अलग-अलग रास्तो से चलने वाले लोग है तो क्या आपके धर्म पद्धति या मान्यताओं की अस्पष्टता या रुढिवादिता से आपके यहाँ आने वाली पीढ़ी को भ्रमित होना पड़े यह मुझे कैसे स्वीकार होगा ? क्या वह मेरे बच्चे नहीं ?
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क्या एक मुसलमान भाई के बच्चे मेरे नहीं ?
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धर्म की अस्पष्टता के कारण समाजों में वैमनस्यता_किसी भी धर्म के बुधिजीवयों को स्वीकार होगी ?
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मैं राजपूत समाज में पैदा हो गया | क्या इस राजपूत समाज में पैदा होना मेरे या मेरे माता-पिता के द्वारा निश्चित था ? मेरे द्वारा राजपूत समाज की कुछ परम्पराए रुदिवादी लगती है जिनमें व्यवहारिकता नहीं है | जैसे कि घुन्घठ-प्रथा | मैं इसका विरोध करता हूँ क्या आप मुझे इस बात के लिए व्यवहारिक और  सकारात्मक द्रष्टि से अपनत्व से आग्रह करे, इस रुढ़िवादी प्रथा को हटाने का सुझाव दे, तो क्या अधर्म हो जाता है ? क्या मेरी पीढियों के लिए गुनाह का कार्य माना जाएगा ?
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मेरे पास एक रहने के लिए मेरे स्वयं का आशियाना नहीं है और दुनिया चन्द्रमा पर अपना आरक्षण करवा रही है | आखिरकार क्या है यह सब ? कब तक व्यावहारिकताओं को धर्म के नाम पर नकारते रहेगें ?
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मैंने तो इसी लिए "कुरआन" (संत विनोबा भावे) भी अभी हाल में पढ़ी है | मुझे तो किसी भी धर्म के ईश्वर के उपदेश में प्रकृति और मानवता के अलावा कोई और सन्देश दिखी नहीं देता है | 
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पंडित हो या मुल्ला__धर्म की व्याखा ईश्वर के रुख (अर्थात सकारात्मक रुख) से करनी चाहिए | साथ ही साथ व्यावहारिकता को नकारना नहीं चाहिए | 
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समय काल परिस्थितियों को ध्यान रखते हुए व्यवहारिकता के स्वरूप में मूल को जीवित रखना है | चाहे आप किसी भी धर्म द्रष्टिकोण से झाँक कर देखे लें__कि मानवता को सवारते चलना ही उस ईश्वर का संकेत है |
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