सोमवार, 21 नवंबर 2011

प्यार स्वतन्त्र नहीं__स्वछंद है |

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प्यार स्वतन्त्र नहीं स्वछंद है. प्यार को विशेष रूप से नहीं, सहजता से अपनाना चाहिए.
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प्यार स्थाई होता है, इसके लिए अपने स्वभाव की स्थितियां संवार के रखनी होती है.
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दो व्यक्तियों के द्वारा स्वयं की और समाज की मर्यादाओं का आदर रखते हुए प्यार करना वैधानिक है   
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प्यार के प्रति भी किसी को आशक्ति नहीं होनी चाहिए, विशवास होना चाहिए.
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प्यार हमें सेक्स की तरफ नहीं ले जाता है हम उसके स्वछंद गुण के कारण भटक कर बहाव में सेक्स की तरफ मार्ग बना लेते है.
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"प्यार" का रिश्ते से कोई सम्बन्ध नहीं होता है. "प्यार" को रिश्ते की मर्यादा युक्त भावना के अनुसार उस रिश्ते में 'प्यार का रंग' (प्यार रूपी रंग) भरा जाता है. तब यह कह सकते है कि "प्यार" को मैंने अपने जीवन में साकार द्रश्य दे दिया.
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"प्यार" जीवन में लुफ्त लेने की चीज नहीं है. यह तो "प्रसाद" होता है.
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आपका स्नेही - यशवंतसिंह 



सोमवार, 7 नवंबर 2011

जन्म मृत्यु के बीच विकास |

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मानव शरीर को जन्म मृत्यु के बीच विकास की 7 अवस्थाओं 
से गुजरना पड़ता है।
आयु के प्रथम सात वर्ष भौतिक शरीर (पशु शरीर) के निर्माण के होते है।
8-14 वर्ष भाव शरीर,
15-21 सूक्ष्म शरीर,
22 से 28 मन शरीर,
29-35 आत्म शरीर,
36-42 ब्रह्म शरीर,
42-49 के बीच निर्वाण शरीर का निर्माण होता है।
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तमाम मनुष्यों का जीवन और मृत्यु के बीच का सफर पशु शरीर 

में ही ब्यतीत हो जाता है। समझ सकते है कि किसी भी विकास
क्रम की अवस्था पर मनुष्य की आगे की दिशा रूक सकती है 
और शेष जीवन उसी विकास अवस्था में गुजर सकता है।
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अत स्वच्छ एवं निर्मल भाव शरीर का निर्माण 

ही दिशा और इच्छा तय करता है।


गुरुवार, 3 नवंबर 2011

प्यार ! प्यार ! प्यार !__क्या है यह प्यार ?




 

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प्यार को ईश्वर प्रदान करता है.
प्यार ईमानदारी के गर्भ में होता है.
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चेतना से प्यार किया जा सकता है.
प्यार की सीमा नहीं होती, बल्कि मर्यादा होती है.
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पहले घोड़े के ऊपर बैठना सीखो, उसके बाद दौड़ना प्रारम्भ करो.
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प्यार अपनत्व और अथाह विशवास से होता है.
मुझ से करो प्यार. प्यार का वास्तविक अर्थ समझ जाओगे.
प्यार के वास्तविक स्वरूप को व्यवहार से समझा जा सकता है.
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प्रेम और सहिष्णुता भारतीय संस्कृति का विशेष व्यवहार है.

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प्रेम के चूल्हे बंद नहीं करने चाहिए.
चाहे आपके खाने की दाल पके या ना पके.
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ज्ञान (सरस्वती) को खर्च करो, उतना ही ज्यादा बढती है.
प्रेम को भी खर्च करो, उतना ही बढ़ता है.

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बुधवार, 2 नवंबर 2011

"एक ईश्वर को मानने मे कैसा झगडा"

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"एक ईश्वर को मानने मे कैसा झगडा"

इस क्रम में मेरा एक मत अपना इस प्रकार है__कि हम जब एक ईश्वर के अलग-अलग रास्तो से चलने वाले लोग है तो क्या आपके धर्म पद्धति या मान्यताओं की अस्पष्टता या रुढिवादिता से आपके यहाँ आने वाली पीढ़ी को भ्रमित होना पड़े यह मुझे कैसे स्वीकार होगा ? क्या वह मेरे बच्चे नहीं ?
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क्या एक मुसलमान भाई के बच्चे मेरे नहीं ?
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धर्म की अस्पष्टता के कारण समाजों में वैमनस्यता_किसी भी धर्म के बुधिजीवयों को स्वीकार होगी ?
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मैं राजपूत समाज में पैदा हो गया | क्या इस राजपूत समाज में पैदा होना मेरे या मेरे माता-पिता के द्वारा निश्चित था ? मेरे द्वारा राजपूत समाज की कुछ परम्पराए रुदिवादी लगती है जिनमें व्यवहारिकता नहीं है | जैसे कि घुन्घठ-प्रथा | मैं इसका विरोध करता हूँ क्या आप मुझे इस बात के लिए व्यवहारिक और  सकारात्मक द्रष्टि से अपनत्व से आग्रह करे, इस रुढ़िवादी प्रथा को हटाने का सुझाव दे, तो क्या अधर्म हो जाता है ? क्या मेरी पीढियों के लिए गुनाह का कार्य माना जाएगा ?
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मेरे पास एक रहने के लिए मेरे स्वयं का आशियाना नहीं है और दुनिया चन्द्रमा पर अपना आरक्षण करवा रही है | आखिरकार क्या है यह सब ? कब तक व्यावहारिकताओं को धर्म के नाम पर नकारते रहेगें ?
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मैंने तो इसी लिए "कुरआन" (संत विनोबा भावे) भी अभी हाल में पढ़ी है | मुझे तो किसी भी धर्म के ईश्वर के उपदेश में प्रकृति और मानवता के अलावा कोई और सन्देश दिखी नहीं देता है | 
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पंडित हो या मुल्ला__धर्म की व्याखा ईश्वर के रुख (अर्थात सकारात्मक रुख) से करनी चाहिए | साथ ही साथ व्यावहारिकता को नकारना नहीं चाहिए | 
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समय काल परिस्थितियों को ध्यान रखते हुए व्यवहारिकता के स्वरूप में मूल को जीवित रखना है | चाहे आप किसी भी धर्म द्रष्टिकोण से झाँक कर देखे लें__कि मानवता को सवारते चलना ही उस ईश्वर का संकेत है |
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मंगलवार, 1 नवंबर 2011

मर्म

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एक बौद्धिक व्यक्ति एक कठिन रास्ते में एक साधारण बात कहते हैं
कलाकार कठिन बात साधारण तरीके से कला के
द्वारा
से कहता हैं


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ईश्वर की "कृपा के फल" से ही प्रेम हो सकता है 
ना कि बाहरी आकर्षण से 
बाहरी आकर्षण से दो पक्षों के द्वारा आगे बढ़कर बातचीत व्यवहार करते हुए आपस में समझने की प्रक्रिया के अंत से 
प्रेम तक पहुंचा जा सकता है |
 ( ईश्वर की "कृपा का फल" अर्थात "सकारात्मक ऊर्जा")

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"तरुणसागर लुहार है पर इनका प्रेम अपार है"
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आदरणीय मुनि तरुणसागर जी के वचनों में कठोरता होती है | किन्तु कठोरता में छिपी प्रियता बहुत होती है | 

इतनी प्रियता तो बच्चों के माता-पिता में भी नहीं होती है |
( खारी बोल्या मायड़ी मीठा बोल्या लोग )
 
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जिन विचारों से तुम्हे सजाया वो विचार ही तुमने उड़ा दिए
जब हमने उन्हें देखा तो वे दिल में तुम्हारे मिले |

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मित्रत्व - एक साधारण और स्वछंद व्यवहार
 
इस मत से मित्रता का अर्थ है
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एक दुसरे को आपस में सँभालते रहना, सही समझ की तरफ बढ़ाना, सहयोग करना, कमजोर नहीं पड़ने देना, प्रसन्न रखना, आहत ना होने देना, ईमानदारी पूर्वक व्यवहार, पारदर्शिता बढ़ाना, सामंजस्यता बनाए रखना, अच्छे विकासात्मक सुझाव देना आदि
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केवल रिश्ते के '
नाम शब्द' पर नहीं चलना, रुदिवादी -विचार स्वीकार नहीं करना.. आदि.

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इस दुनिया की असली समस्या यह है 

कि मुर्ख व अड़ियल लोग अपने बारे में हमेशा पक्के होते है
(कि वे सही है)
किन्तु बुद्धिमान लोग हमेशा संदेह में रहते है

(कि मैं गलत तो नहीं हूँ ) 
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